अप्रतिम कविताएँ
वाणी वैभव
मातृभाषा भिन्न है विभिन्न भाषाभाषियों की,
भिन्न भिन्न भाँति बोली लिखी पढ़ी जाती है।
अवधी, बिहारी, ब्रज, बँगला, मराठी, सिन्धी,
कन्नड़, कोंकण, मारवाड़ी, गुजराती है॥
तेलगू, तमिल मुशकिल गिन पाना किन्तु,
एक बात "वंचक" समान पाई जाती है।
लेते ही जनम "कहाँ-कहाँ" कहते हैं सभी,
सभी की प्राकृत भाषा एक ही लखाती है॥

आके धराधाम पे तमाम सह यातनायें,
मानव माल आँख है प्रथम जब खोलता।
जननी-जनक चाहे जिस भाषा के हों भाषी,
विवश जिज्ञासा "कहाँ-कहाँ" ही है बोलता॥
"क" से "ह" है व्यंजन औ स्वर "अ" से "अँ" तलक,
इन्ही से बना के शब्द भाव है किलोलता।
"वंचक" है भाषा यही सभी की प्राकृत एक,
अज्ञ वो है जो है अन्य और को टटोलता॥
- लक्ष्मीकान्त मिश्र "वंचक"
Poet's Address: 3/18 Shivala. Varanasi

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'अन्त'
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झर-झर बहते नेत्रों से,
कौन सा सत्य बहा होगा?
वो सत्य बना आखिर पानी,
जो कहीं नहीं कहा होगा।

झलकती सी बेचैनी को,
कितना धिक्कार मिला होगा?
बाद में सोचे है इंसान,
पहले अंधा-बहरा होगा।

तलाश करे या आस करे,
किस पर विश्वास ज़रा होगा?
..

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