अप्रतिम कविताएँ
फागुन के दोहे
ऐसी दौड़ी फगुनाहट ढाणी चौक फलांग
फागुन आया खेत में गये पड़ोसी जान।

आम बौराया आंगना कोयल चढ़ी अटार
चंग द्वार दे दादर मौसम हुआ बहार।

दूब फूल की गुदगुदी बतरस चढ़ी मिठास
मुलके दादी भामरी मौसम को है आस।

वर गेहूं बाली सजा खड़ी फ़सल बारात
सुग्गा छेड़े पी कहाँ सरसों पीली गात।

ऋतु के मोखे सब खड़े पाने को सौगात
मानक बाँटे छाँट कर टेसू ढाक पलाश।

ढीठ छोरियाँ तितलियाँ रोकें राह वसंत
धरती सब क्यारी हुई अम्बर हुआ पतंग।

मौसम के मतदान में हुआ अराजक काम
पतझर में घायल हुए निरे पात पैगाम।

दबा बनारस पान को पीक दयई यौं डार
चैत गुनगुनी दोपहर गुलमोहर कचनार।

सजे माँडने आँगने होली के त्योहार
बुरी बलायें जल मरें शगुन सजाए द्वार।

मन के आँगन रच गए कुंकुम अबीर गुलाल
लाली फागुन माह की बढ़े साल दर साल।
- पूर्णिमा वर्मन
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'अन्त'
दिव्या ओंकारी ’गरिमा’


झर-झर बहते नेत्रों से,
कौन सा सत्य बहा होगा?
वो सत्य बना आखिर पानी,
जो कहीं नहीं कहा होगा।

झलकती सी बेचैनी को,
कितना धिक्कार मिला होगा?
बाद में सोचे है इंसान,
पहले अंधा-बहरा होगा।

तलाश करे या आस करे,
किस पर विश्वास ज़रा होगा?
..

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