अप्रतिम कविताएँ
मेरे तो गिरिधर गोपाल
मेरे तो गिरिधर गोपाल दूसरो न कोई।
जाके सिर मोर मुकुट मेरो पति सोई।
तात मात भ्रात बंधु आपनो न कोई॥।
छाँड़ि दी कुल की कानि कहा करिहै कोई।
संतन ढिंग बैठि-बैठि लोक लाज खोई॥
चुनरी के किये टूक ओढ़ लीन्ही लोई।
मोती मूँगे उतार बनमाला पोई॥
अँसुवन जल सींचि सींचि प्रेम बेलि बोई।
अब तो बेल फैल गई आणँद फल होई॥
दूध की मथनियाँ बड़े प्रेम से बिलोई।
माखन जब काढ़ि लियो छाछा पिये कोई॥
भगत देख राजी हुई जगत देखि रोई।
दासी "मीरा" लाल गिरिधर तारो अब मोही॥
- मीराबाई

***
सहयोग दें
विज्ञापनों के विकर्षण से मुक्त, काव्य के सौन्दर्य और सुकून का शान्तिदायक घर... काव्यालय ऐसा बना रहे, इसके लिए सहयोग दे।

₹ 500
₹ 250
अन्य राशि
मीराबाई
की काव्यालय पर अन्य रचनाएँ

 घर आवो जी सजन मिठ बोला
 तोसों लाग्यो नेह रे प्यारे
 पग घूँघरू बाँध मीरा नाची रे
 पायो जी म्हें तो राम रतन धन पायो
 मेरे तो गिरिधर गोपाल
 श्याम मोसूँ ऐंडो डोलै हो
इस महीने :
'तोड़ती पत्थर'
सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला'


वह तोड़ती पत्थर;
देखा उसे मैंने इलाहाबाद के पथ पर—
वह तोड़ती पत्थर।

कोई न छायादार
पेड़ वह जिसके तले बैठी हुई स्वीकार;
श्याम तन, भर बँधा यौवन,
नत नयन प्रिय, कर्म-रत मन,
..

पूरी प्रस्तुति यहाँ पढें और सुनें...
इस महीने :
'एक अदद तारा मिल जाये'
सत्येन्द्र कुमार रघुवंशी


एक अदद तारा मिल जाये
तो इस नीम अँधेरे में भी
तुमको लम्बा ख़त लिख डालूँ।

छोटे ख़त में आ न सकेंगी
पीड़ा की पर्वतमालाएँ
और छटपटाहट की नदियाँ।
पता नहीं क्या वक़्त हुआ है,
..

पूरी प्रस्तुति यहाँ पढें और सुनें...
संग्रह से कोई भी रचना | काव्य विभाग: शिलाधार युगवाणी नव-कुसुम काव्य-सेतु | प्रतिध्वनि | काव्य लेख
सम्पर्क करें | हमारा परिचय
सहयोग दें

a  MANASKRITI  website