सात घोड़ों पर सवार सपना

धर्मवीर भारती की एक मुक्त छंद कविता है जो मुझे बहुत पसन्द है। एक निहित लय का भी एहसास होता है। किन्तु लय की बात बाद में, पहले कविता का आनन्द लें —

क्योंकि

…… क्योंकि सपना है अभी भी –
इसलिए तलवार टूटे, अश्व घायल
कोहरे डूबी दिशायें,
कौन दुश्मन, कौन अपने लोग, सब कुछ धुंध-धूमिल,
किन्तु कायम युद्ध का संकल्प है अपना अभी भी
…… क्योंकि है सपना अभी भी!

तोड़ कर अपने चतुर्दिक का छलावा
जबकि घर छोड़ा, गली छोड़ी, नगर छोड़ा,
कुछ नहीं था पास बस इसके अलावा,
विदा बेला, यही सपना भाल पर तुमने तिलक की तरह आँका था
(एक युग के बाद अब तुमको कहां याद होगा)
किन्तु मुझको तो इसी के लिए जीना और लड़ना
है धधकती आग में तपना अभी भी
…… क्योंकि सपना है अभी भी!

तुम नहीं हो, मैं अकेला हूँ मगर
यह तुम्ही हो जो
टूटती तलवार की झंकार में
या भीड़ की जयकार में
या मौत के सुनसान हाहाकार में
फिर गूंज जाती हो
और मुझको
ढाल छूटे, कवच टूटे हुए मुझको
फिर याद आता है कि
सब कुछ खो गया है – दिशाएँ, पहचान, कुंडल-कवच
लेकिन शेष हूँ मैं, युद्धरत् मैं, तुम्हारा मैं
तुम्हारा अपना अभी भी

इसलिए, तलवार टूटी, अश्व घायल,
कोहरे डूबी दिशाएँ,
कौन दुश्मन, कौन अपने लोग, सब कुछ धुंध-धूमिल
किन्तु कायम युद्ध का संकल्प है अपना अभी भी
…… क्योंकि सपना है अभी भी!

~ धर्मवीर भारती

कैसी लगी कविता? अति-सशक्त है न? एक निहित लय का एहसास हुआ?

मैंने इसे गीत गतिरूप में डाल कर देखा तो पाया कि सात मात्राओं की लय पर बह रही है यह कविता। पता नहीं क्यों, पर कविता मेरे लिए और भी सुन्दर हो गई। देखिए इस चित्र में — लगभग हर पंक्ति 7 मात्राओं का कोई गुणज है (14, 21, 28 इत्यादि)। कुछ पंक्तियों को जोड़ने से उनकी संख्या 7 का गुणज बनती है। और यह सब उच्चारण में कोई फेर बदल के बिना। सच, लय कविता का अनिवार्य गुण है।

उफ्फ, यह दादी की दाढ़ी (और कविता का लय) कैसे सँवारें?

दादी की याद आने के कितने बहाने हैं…

दोस्तो, हल्की फुल्की हँसी के लिए, महिलाओं की इस अनकही संघर्ष पर, बबीता माँधणा ने सीधी सरल कविता लिखी —

इतिहास खुद को दोहराएगा

इक दिन मेरी दादी बोली,
तुम सब मिल मुझे चिढ़ाते हो
‘दाढ़ी की अम्मा’ कहते हो।
हम कहते ‘डैडी की अम्मा’
वे सुनती ‘दाढ़ी की अम्मा’!
वह मुस्काईं और फिर कहा —
इस ठुड्डी में बाल आ गए,
इसीलिए मुझे चिढ़ाते हो
‘दाढ़ी की अम्मा’ कहते हो?
इक दिन ऐसा भी आएगा,
इतिहास खुद दोहराएगा।
पार जवानी आएगी तू,
बाल उगेंगे ठुड्डी पर जब,
सब ‘दाढ़ी की अम्मा’ कह कर,
दादी की याद दिलाएँगे
यूँ इतिहास दोहराएँगे।

इक दिन मेरी दादी बोली।

~ बबीता माँधणा

अब बाल चाहे सर के हों या ठुड्डी के, बिखरें न हों तो बेहतर है, है न? वही बात कविता के साथ भी है। यह कविता जब पहली बार लिखी गई, इस प्रकार थी —

एक दिन मेरी दादी बोली,
तुम सब मिल मुझे चिढ़ाते हो
‘दाढ़ी की अम्मा’ बुलाते हो…
हम कहते थे ‘डैडी की अम्मा’,
वे सुनती थी ‘दाढ़ी की अम्मा’
उन्होंने मुस्कराकर फिर कहा-
मेरी ठुड्डी में बाल आ गए,
इसलिए मुझे चिढ़ाते हो…
‘दाढ़ी की अम्मा’ बुलाते हो|
एक दिन ऐसा आएगा,
इतिहास खुद को दोहराएगा…
जब तुम बड़े हो जाओगे
तुम्हारी ठुड्डी में बाल उगेंगे,
सब तुम्हे भी ‘दाढ़ी की अम्मा’ बुलाएँगे…
और मेरी याद दिलाएँगे|

बाल पर दो चार बार कंघी चलाने से वे संवर जाते हैं। कवि अपनी पंक्तियों को कैसे संवारे? कविता का सौन्दर्य कई पहलूओं से उभरता है। उसमें से एक पहलू है लय। यहाँ लय सुधारने के लिए हमने गीत गतिरूप की सहायता ली। गीत गतिरूप में इस कविता का पहले ड्राफ़्ट का यह चित्र बना —

यहाँ हर अंक उस पंक्ति की कुल मात्रा है
और चित्र में स्पष्ट है कि कौन सा अक्षर कितनी मात्राओं का है

पाठक का मन “एक” को “इक” स्वत: ही पढ़ लेता है क्योंकि लय में बहना इतनी आसान प्रक्रिया है। तो “एक” के ए पर क्लिक कर हमने उसे छोटा कर दिया (इसलिए बॉक्स पीला है) और पहली दो पंक्तियाँ 16 मात्रा में हैं। 16 मात्रा, सबसे आसान लय, अक्सर गीत संगीत कविता में पाई जाती है।

पर अन्य पंक्तियों का क्या? वे सोलह के आस पास हैं, पर कंघी चलानी होगी। देखिए हर पंक्ति को कैसे बदला गया। यह उदाहरण है कि कविता में गद्यात्मक अभिव्यक्ति को कैसे पद्यात्मक बनाया जा सकता है, अक्सर अनावश्यक शब्द हटाए जा सकते हैं।

‘दाढ़ी की अम्मा’ बुलाते हो [17 मात्रा]
‘दाढ़ी की अम्मा’ कहते हो [16 मात्रा]

“बुलाते” को “कहते” में बदल दिया। अ की एक मात्रा होती है, आ के दो मात्रा। उसे कहने में दुगुना समय लगता है।

एक स्पष्टिकरण — गीत गतिरूप दूसरे शब्द नहीं सुझाता है। क्या संशोधन उपयुक्त होगा, वह कवि पर ही निर्भर है। हाँ समानार्थक शब्द खोजने की सुविधा “शब्द सम्पदा” उपलब्ध है।

हम कहते थे ‘डैडी की अम्मा’ [18 मात्रा]
वे सुनती थी ‘दाढ़ी की अम्मा’ [18 मात्रा]

हम कहते ‘डैडी की अम्मा [16 मात्रा]
वे सुनती ‘दाढ़ी की अम्मा’ [16 मात्रा]
(अनावश्यक “थे”, “थी” हटा दिए)

उन्होंने मुस्कराकर फिर कहा [17 मात्रा]
वह मुस्काईं और फिर कहा [16 मात्रा]
(“उन्होंने मुस्कराकर” बहुत गद्यात्मक है)

मेरी ठुड्डी में बाल आ गए [18 मात्रा]
इस ठुड्डी में बाल आ गए [16 मात्रा]

लिए मुझे चिढ़ाते हो [15 मात्रा]
सीलिए मुझे चिढ़ाते हो [16 मात्रा]

क दिन ऐसा आएगा [15 मात्रा]
क दिन ऐसा भी आएगा [16 मात्रा]

इतिहास खुद को दोहराएगा [18 मात्रा]
इतिहास खुद दोहराएगा [16 मात्रा]

जब तुम बड़े हो जाओगे [15 मात्रा]
पार जवानी आएगी तू [16 मात्रा]

तुम्हारी ठुड्डी में बाल उगेंगे [19 मात्रा]
बाल उगेंगे ठुड्डी पर जब [16 मात्रा]

सब तुम्हे भी ‘दाढ़ी की अम्मा’ बुलाएँगे [24 मात्रा]
सब ‘दाढ़ी की अम्मा’ कह कर [16 मात्रा]

और मेरी याद दिलाएँगे [17 मात्रा]
दादी की याद दिलाएँगे [16 मात्रा]

पश्चिम बंगाल हावड़ा निवासी, हिन्दी अध्यापिका बबीता माँधणा को धन्यवाद, इस बिल्कुल अलग विषय की रचना के लिए, और इस संशोधन यात्रा को साझा करने की अनुमति के लिए।

बड़े को छोटा किया तो दिख जाएगा

कविता में उच्चारण से ही लय निर्धारित होता है। देवनागरी लिपि के लघु (छोटे) दीर्घ (बड़े) स्वरों (अ आ इ ई उ ऊ ए ऐ ओ औ) का ठीक उच्चारण हो तो कम और ज्यादा समय लगता है और इसे ही मात्रा कहते हैं — समय की मात्रा।

इसके अनुसार तुलसिदास, दिनकर, बच्चन जैसे दिग्गज कवियों और पहले के गीतकारों की रचनाओं को गीत गतिरूप में डालें तो कविता लय के अनुसार सटीक ही दिखती है। किन्तु भाषा सदा रूप बदलता रहता है, तो कई बार उच्चारण लिपि के अनुकूल नहीं होता। हम भी रचना को छंद में ढालने का पूरा प्रयत्न नहीं करते हैं।

तो इन कुछ कारणों से शब्दों में बड़ी मात्रा का छोटा उच्चारण होता है —

  1. यदि रचना उर्दू से प्रेरित हो तो उर्दू में लघु दीर्घ स्वर (vowel) की ज्यादा छूट है
  2. रचना में अंग्रेजी के शब्द हों तो अंग्रेजी का कई जगह सही उच्चारण लघु होता है, जबकि करीबी अक्षर हिन्दी में दीर्घ ही लिखना होता है
  3. या हम बस कहीं कोई शब्द छोटा ही कह देना चाहते हैं, हालांकि उसका सही उच्चारण दीर्घ है

ऐसे में आप गीत गतिरूप में दीर्घ स्वर को लघु में बदल सकते हैं, और जब ऐसा करते हैं तो वह पीले रंग में बदल जाता है जिससे कि स्पष्ट नज़र आए कि रचना में किस जगह उच्चारण, लिपि के सही उच्चारण से भिन्न है।

देखिए, तीनों स्थिति के उदाहरण

1. उर्दू से प्रेरित रचना — दुष्यंत कुमार की ग़ज़ल

हो गई है पीर पर्वत-सी पिघलनी चाहिए,
इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए।

आज यह दीवार, परदों की तरह हिलने लगी,
शर्त लेकिन थी कि ये बुनियाद हिलनी चाहिए।

हर सड़क पर, हर गली में, हर नगर, हर गाँव में,
हाथ लहराते हुए हर लाश चलनी चाहिए।

सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं,
सारी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए।

मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही,
हो कहीं भी आग, लेकिन आग जलनी चाहिए।

गीत गतिरूप में यह पहले तो ऐसे दिखता है

यह ग़ज़ल 26 मात्रा के लय पर है। पढ़ कर अपने उच्चारण पर ध्यान दें तो पायेंगे कि कई जगह बड़े स्वर का छोटा उच्चारण हो रहा है। उन अक्षर पर क्लिक करें तो वह सिकुड़ जाएगा और पीले रंग में बदल जाएगा। ऐसा करने पर प्रतिरूप यह बनता है —

पढ़ने के वक्त क्या आपको भी लगा कि यह पीले अक्षरों का लघु उच्चारण हो रहा है? लय में लिखने के लिए ध्वनि और उच्चारण पर ध्यान देना बहुत ज़रूरी है।

2. अंग्रेजी शब्द का प्रयोग – वाणी मुरारका की छोटी सी रचना

भाषा हूँ मैं खाली पैकेट
मुझमें जो भरना है भर दो
हिन्दी या अंग्रेज़ी संस्कृत
कटु या फिर कुछ सोच प्रखर दो

कटु जो है वह मिट जाएगा
भाषा चाहे कोई भी हो
उन्नत जो है वही बचेगा
पैकेट जिस भी भाषा का हो

पहले गीत गतिरूप यह दिखाता है

यहाँ अंग्रेजी शब्द “पैकेट” का प्रयोग हुआ है, जिसके सही उच्चारण में “के” छोटा ही कहा जाता है। तो पैकेट के “के” पर क्लिक कर हम उसे छोटा करें तो प्रतिरूप यूँ बदलता है

3. बॉलिवुड का प्रसिद्ध गाना “तुम ही हो” – अरिजीत सिंह गायक, गीतकार मिथुन

हम तेरे बिन अब रह नहीं सकते
तेरे बिना क्या वजूद मेरा
तुझसे जुदा गर हो जाएँगे
तो खुद से भी हो जाएँगे जुदा

यहाँ गायन में कई बड़ी मात्राओं का छोटा उच्चारण किया गया है जिससे शब्द संगीत के लय में फिट हो जाए। तो आप गाना सुनें तो पायेंगे कि इन शब्दों के उच्चारण को यहाँ बदला गया है

कविता यदि अपने में लय और छंद के अनुकूल हो तो संगीत के बिना भी पाठक के दिल में उतरती है। हम यदि बार बार कविता को संशोधित कर छंद में लिखने का प्रयत्न करें तो अच्छा है, किन्तु यह कुछ उदाहरण थे कि यदि आप उच्चारण बदल रहे हैं तो गीत गतिरूप में उसे कैसे दर्शा सकते हैं।

छोटी, प्यारी, मगर मुक्त है क्या? काव्य शिल्प और मुक्त उड़ान के कुछ आधार

किसी कमाल हायकू का सा असर है, केदारनाथ अग्रवाल की इस छोटी सी रचना में। पर यह हायकू नहीं है। शायद सरल साधारण मुक्त कविता है?

अच्छा विधा की बात बाद में करेंगे, पहले रचना का रसास्वादन तो करें!

आज नदी बिलकुल उदास थी।
सोयी थी अपने पानी में,
उसके दर्पण पर –
बादल का वस्त्र पड़ा था।
मैंने उसे नहीं जगाया,
दबे पाँव घर वापस आया।

~ केदारनाथ अग्रवाल

हुआ न असर? इतने से शब्द में एक स्पष्ट चित्र खिंच गया, और चित्र एक विस्तृत एहसास में बदल गया। एक पल, अनन्त की गहराई लिए ― ठीक वैसे जैसे एक माहिर कवि की हायकू अपनी डिबिया में छिपाए रखती है। पर यह हायकू नहीं है!

“वाणी, यह क्या हो गया है आपको? यह तो सभी को दिख रहा है कि यह हायकू नहीं है।”

ओह! तो क्या यह बस एक मुक्त कविता है? कवि ने अपनी बात कह दी और बस किसी चमत्कार से हम पर असर हो गया?

“जी ‘गागर में सागर’ कहते हैं हमारे यहाँ। बाकि हमें क्या करना कि यह ‘क्या’ कविता है! यह कवियों का होता है कुछ — ‘अन्दाज़े-बयां’ वगैरह…”

कुछ तो रहस्य है। कैसे हो जाता है असर? क्या है यह चमत्कार? मेरा मन कह रहा है, कुछ तो है जिसके कारण यह पंक्तियाँ मुझे खींच लेती हैं। बस “अन्दाज़े-बयां” नहीं है।

आह! गीत गतिरूप ने कुछ नक़ाब हटाए! इन पंक्तियों में एक अदृश्य लय छिपा है। इसी के स्पन्दन से यह पंक्तियाँ अप्रत्यक्ष मेरे मन में प्रतिध्वनित हो रही हैं।

आज नदी - पंक्तियों को अलग तरह से तोड़ें - उसका गतिरूप

सोलह मात्राओं का लय – काव्य, संगीत, नृत्य में सबसे ज्यादा प्रयोग होता है। तबला पर इसे “तीनताल” कहते हैं। हमारा मन बड़ी सहजता से इसे ग्रहण कर लेता है। कभी कभी तो हमें पता भी नहीं चलता कि वह हममें गूंज रहा है, जैसे कि इस रचना में।

यहाँ पहली चार पंक्तियों में कोई तुक भी नहीं, और बीच में तो लय काफी टूट भी रहा है — इसी से रचना छन्द बद्ध नियमों से मुक्त लगती है। लगता है कवि ने बस अपनी बात कह दी — बात सुन्दर है, दृश्य सुन्दर है, तो हो गया असर।

पर कवि ने बस ऐसे ही नहीं कह दिया। इस मुक्त उड़ान का भी आधार है। लय पाठक के मन में अनुभूति को प्रतिध्वनित करने की, पंक्तियों को प्रवाह देने की महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। जो पंक्तियाँ लय में हैं, उनका तो हमारे अवचेतन पर असर हो ही रहा है — बीच में जहाँ लय टूट रहा है, सोलह मात्रा के छंद में से, आठ मात्रा, अर्थात आधी पंक्ति गायब हैं, उसका भी खास असर है। पहली बात 16 से ठीक आधा, 8 मात्रा गायब है, 3 नहीं, 6 या 7 नहीं। पढ़ने के दौरान स्वाभाविक रूप से वहाँ कुछ खाली खाली सा रह जाता है। इस आधी अदृश्य पंक्ति में कवि मौन को भी स्पष्ट आसन दे रहा है और हमें पता नहीं चलता मगर उस मौन से निहित एहसास और गहरा जाता है।

यह छंद टूटी पंक्तियों में कवि ने अगली पंक्ति कहाँ शूरु की है, उसके भी अर्थ हैं। पहली पंक्ति “उसके दर्पण पर” के बाद पाठक स्वाभाविक रूप से दो क्षण रुकता है, नदी के दर्पण को आत्मसात करता है, फिर “बादल का वस्त्र पड़ा था” से अगली बात, अगला दृश्य, अगली अनुभूति प्रस्तुत की जाती है। अगर हम सजग होकर पंक्तियों को ग्रहण करेंगे, तो मन के अन्दर यह क्रिया छोटे से चलचित्र के जैसे घटती नज़र आएगी।

काव्य में लय, प्रवाह की महत्वपूर्ण भूमिका है, मगर सिर्फ़ वह ही सबकुछ नहीं है। सिर्फ़ लय पर ध्यान दें तो कवि शब्दों को इस प्रकार सजा सकता था

उसके दर्पण
पर बादल का
वस्त्र पड़ा था
आज नदी - पंक्तियों को अलग तरह से तोड़ें - उसका गतिरूप

इस प्रकार से बात ठिठक कर पाठक तक पँहुचती है, अनुभूति और दृश्य गायब हो जाते हैं। हर पंक्ति का अपने में कोई अर्थ नहीं रह जाता है।

जैसे शिल्पकार पत्थर तराशता है, कवि व गीतकार समय तो तराश कर उसमें शब्दों को जड़ देता है। उद्देश्य – अनुभूति का सम्प्रेषण जो पाठक के मन में सुगन्ध की तरह फैल जाए। लोग कहते हैं कविता तो भावना की मुक्त धारा है, उसे बस बहने दो। हाँ, ज़रूर, पहले ड्राफ़्ट में बस लिख डालो जो भी शब्द बह रहे हैं। पर फिर वह अभिव्यक्ति पाठक के हृदय में भी सहज स्पन्दित होती है कि नहीं यह शिल्प की बात है। विधा चाहे जो भी हो, रचना चाहे जितनी भी लम्बी या छोटी हो। पहली बार में जो लिख दिया वही कविता नहीं बन जाती। कवि अपने पहले ड्राफ़्ट को शिल्प के नज़रिए से बार बार तराशता है, जबतक कि हर शब्द को स्पष्ट आसन न मिल जाए, जबतक कि सभी अतिरिक्त शब्दों को झाड़ कर हटा न दिया जाए। तब रचना उभर कर बाहर आती है।

***

लेख में चित्र और मात्रा गणना गीत गतिरूप के द्वारा किया गया है। गीत गतिरूप कवि को अपनी कविताओं का शिल्प तराशने में मदद करता है।

मुक्त कविता की उड़ान पर आप भी अपना अनुभव साझा करें, कवि के जैसे भी, और पाठक के जैसे भी। कोई कविता आपपर क्यों असर करती है उसपर अपने विचार नीचे कमेन्ट में साझा करें।

काव्य शिल्प में शब्द संयोजन का मेरा एक अनुभव

“आज यूनिफॉर्म आयरन नहीं हो सका? कोई बात नहीं। तुम यहाँ खड़ी हो जाओ सीता। कपड़े ढक जाएँगे, पर चहरा स्पष्ट नज़र आएगा। राधिका तुम मॉनिटर हो, सामने की पंक्ति मे आ जाओ। लम्बी हो इसलिए तुम्हे बैठना होगा।”

क्लास फोटो के पहले सारे बच्चों के लिए ठीक ठीक जगह तय करना बड़ा पेचीदा काम है। अक्सर कविता की एक पंक्ति मे भी कौन से शब्द कहाँ रखे जाएं, यह संयोजन या तो पंक्ति को सरसता प्रदान करती है, या एक चुभते कंकड़ का आभास छोड़ जाती है। छन्द मात्रा सही हो, वही चार-पाँच शब्द, पर किसे कौन सी कुर्सी मिले जिससे कि पंक्ति कानों को सहला जाए – यह तय करने में शब्दों में फेर बदल करना जरूरी होता है। इस आधी अधूरी रचना में एक पंक्ति ने ऐसे ही मुझे तंग किया, एक छोटे से अस्पष्ट कंकड़ का आभास होता रहा –

यह नियम है – शाम ढलती है।
दु:ख के आँचल का लहराना
यह भी मन का अटल नियम है।

ऐसे मत हो –
दिन तो भाए पर, रात ढले ना सहन करो।
अपने हथियार रख दो सारे
पोषण लेकर आई रात,
कुछ पल यह भी ग्रहण करो।

वह कष्टदायक पंक्ति थी
अपने हथियार रख दो सारे

बहुत देर तक समझ में नहीं आया, पढ़ने में कहाँ अड़चन आ रही है। फिर दिखा – “हथियार” का र और “रख” का र मिल रहें हैं और पढ़ने में दोनों शब्द का स्पष्ट उच्चारण नहीं हो पा रहा है।

तो दूसरी बार पंक्ति यह बनी,
अपने हथियार सारे रख दो

अब “हथियार” और “रख” अलग अलग हो गए, पढ़ते वक्त कानों को कुछ राहत मिली, पर अब “सारे” और “रख” पास पास थे – रे और र। र और र से तो यह बेहतर था फिर भी पढ़ते वक्त जीभ पूरी तरह से खुश नहीं थी।

फिर काव्य की देवी ने तीसरा रूप धरा
रख दो अपने हथियार सारे

इस संयोजन में कुछ तो आकर्षक है – पढ़ते वक्त स्वत: ही हथियार के “या” पर ज़ोर पड़ रहा है जिससे कि शायद अभिव्यक्ति कुछ सशक्त हुई है। अब पंक्ति को अपने पड़ोसियों के संग पढ़ते हैं –

दिन तो भाए पर, रात ढले ना सहन करो।
रख दो अपने हथियार सारे
पोषण लेकर आई रात,

फिर कुछ खटक रहा है। बात यह है कि हमारी पंक्ति में 2 2 मात्रा के संयोजन में हथियार का र बेचारा चिपट गया है।

यहाँ दो बातें महत्वपूर्ण हैं –

  1. जब विषम मात्राओं की पंक्ति हो, जैसे 15, 17, 19 – तो आखरी अक्षर अकेले एक मात्रा का बचे तो बेहतर है। यहाँ 17 मात्रा की पंक्ति का अन्त 2 मात्रा से हो रहा है – “सारे” के “रे” से।
  2. पंक्ति के बीच में विषम मात्रा के शब्द को जितनी शीघ्रता से पास के शब्द से एक मात्रा मिल जाए, उतना बेहतर है – जिससे कि विषम सम हो सके। जैसे कि “प्यार नहीं” और “नहीं प्यार” के बीच “प्यार नहीं” में ज्यादा लय है।

तो इस तरह से आखिरकार पंक्ति ने रूप लिया –
रख दो अपने सारे हथियार

अगली पंक्ति के संग देखें तो
रख दो अपने सारे हथियार
पोषण लेकर आई रात

अब हथियार का यार और रात दोनों 2+1 से समाप्त हो रहे हैं तो कानों को कुछ और सुकून मिल रहा है – और रचना ने यह रूप लिया

यह नियम है – शाम ढलती है।
दु:ख के आँचल का लहराना
यह भी मन का अटल नियम है।

ऐसे मत हो –
दिन तो भाए पर, रात ढले ना सहन करो।
रख दो अपने सारे हथियार –
पोषण लेकर आई रात,
कुछ पल यह भी ग्रहण करो।

इस लेख में मात्राओं के चित्र गीत गतिरूप के सहयोग से बनाए गए हैं। गीत गतिरूप एक सॉफ़्टवेयर है जो काव्य-शिल्प संवारने में कवि की मदद करता है। कविता में शब्द संयोजन के आपके अनुभव और विचार भी हमारे संग नीचे कमेन्ट्स में साझा करें।

अजीब मानूस अजनबी था…

गये दिनों का सुराग़ ले कर किधर से आया किधर गया वो
अजीब मानूस अजनबी था, मुझे तो हैरान कर गया वो
– नासिर क़ाज़मी ( http://swatisani.net/asad/ से )

अभी पढ़ा यह शेर। एक उतार चढ़ाव है इसकी पंक्तियों में जो मुझे मोहक लगीं। तो मैंने इसे गीत गतिरूप में डाल कर देखा –

33 मात्राओं की पंक्तियाँ मिली, 16+17 की जोड़ी में, जो अक्सर देखने को नहीं मिलती। और ऊपर नीचे के अक्षर कहीं एक दूसरे को काटते नहीं। ए-कार अक्सर ग़ज़ल में छोटा उच्चारण किया जाता है – मगर उसकी भी यहाँ कहीं आवश्यकता नहीं। वैसे उर्दू ग़ज़ल के मापदण्ड शायद कुछ और हैं (मात्रा नहीं) और 33 33 होने से ही मोहक उतार चढ़ाव नहीं होता – पंक्ति के अन्दर की शिल्प की भी बात है।

शेर का संदेश तो मोहक है ही!

लड़कियां किस लय पर थिरकती हैं – कविता छंद विश्लेषण

हाल ही में काव्यालय पर सुदर्शन शर्मा की कविता लड़कियाँ प्रकाशित हुई। कविता पढ़ कर मुझे एक लय का एहसास हुआ। जबकि यह स्पष्ट है कि यह छंदोबद्ध कविता नहीं है और होना भी नहीं चाह रही है …

हाल ही में काव्यालय पर सुदर्शन शर्मा की कविता लड़कियाँ प्रकाशित हुई। कविता पढ़ कर मुझे एक लय का एहसास हुआ।

आपने अगर नहीं पढ़ी है कविता तो पहले उसका रस ले लें, फिर आगे बात करते हैं| अगर पढ़ी है, तो सीधे यहाँ मुद्दे पर आइये|

लड़कियाँ

कहाँ चली जाती हैं
हँसती खिलखिलाती
चहकती महकती
कभी चंचल नदिया
तो कभी ठहरे तालाब सी लड़कियाँ

क्यों चुप हो जाती हैं
गज़ल सी कहती
नग़मों में बहती
सीधे दिल में उतरती
आदाब सी लड़कियाँ

क्यों उदास हो जाती हैं
सपनों को बुनती
खुशियों को चुनती
आज में अपने कल को ढूंढती
बेताब सी लड़कियाँ

कल दिखी थी, आज नहीं दिखती
पंख तो खोले थे, परवाज़ नहीं दिखती
कहाँ भेज दी जाती हैं
उड़ने को आतुर
सुरख़ाब सी लड़कियाँ

– सुदर्शन शर्मा


कविता के ढांचे में कुछ बातें तो स्पष्ट हैं, जो लय का एहसास देती हैं –

  • पाँच पंक्तियों का हर छंद
  • हर छंद में पहली पंक्ति एक दुखद प्रश्न उठाती है, कि एक सुन्दर सा चित्र कहाँ खो गया
  • बाकि की चार पंक्ति वह सुन्दर चित्र खींचती हैं (जो खो गया)
  • हर छंद “आब सी लड़कियाँ” पर खतम होता है

इसके आगे भी एक लय का एहसास होता है, जबकि यह स्पष्ट है कि यह छंदोबद्ध कविता नहीं है और होना भी नहीं चाह रही है। यह कौतुहल हुआ कि गीत-गतिरूप में देखें इस रचना को| यह लय का एहसास कहाँ से आ रहा है, कुछ और पता चलता है क्या।

तो कविता को गीत-गतिरूप में डालने से यह मिला

इससे कुछ लय बोध तो हो नहीं रहा| हर पंक्ति जितने मात्रा की है उसमें कुछ ठोस समानता नहीं दिख रही है| 12, 17, 10, 23 सभी प्रकार के अंक हैं| (गौर करें दाहिनी ओर के अंकों पर)

तो फिर पंक्तियों को जोड़ हर छंद में कुल मात्रा कितने हैं, वह देखते हैं –

अभी भी काफी असमानता है – 65, 56, 64, 76 | फिर भी 56, 64 में यह समानता है कि वह दोनों 8 के गुणज हैं (multiples of 8)| तो क्या रचना का मूल बहर 8 है?

चलिए मूल बहर के बॉक्स में 8 देकर देखते हैं –

मूल बहर के अनुसार पहले छंद में 1 मात्रा ज़्यादा है और चौथे छंद में 4 मात्रा ज़्यादा है|

यह बहुत ख़ास बात नहीं – उच्चारण में अक्सर हम कुछ दीर्घ स्वर लघु करके कहते हैं| जैसे, “तो कभी ठहरे तालाब सी लडकियां” को “तो कभी ठहरे तालाब सि लडकियां” उच्चारण करना काफी आम है| तो उस “सी” को एक मात्रा करने से छंद मूल बहर में बैठ जाता है|
(“सी” पर मैंने क्लिक किया तो वह सिकुड़ कर एक मात्रा का हो गया| जब जुड़ी हुई पंक्तियाँ मूल बहर के अनुकूल होती है तो अंक लाल में नहीं होता)

उसी प्रकार से आख़री छंद पढ़ते वक्त अपने उच्चारण पर गौर करती हूँ तो लगता है –
“पंख तो खोले थे परवाज़ नहीं दिखती” में “तो” स्वाभाविकता से छोटा उच्चारण कर रही हूँ|
वैसे ही “उड़ने को आतुर” में “को” छोटा उच्चारण कर रही हूँ| आख़री पंक्ति में फिर “सुरखाब सी लडकियां” में सी मैं सि उच्चारण कर रही हूँ|

तो कुल मिला कर आख़री छंद यूं बैठा –

एक मात्रा अभी भी ज़्यादा| पर कुछ तो स्पष्ट हुआ कि छन्दोबद्ध कविता नहीं है फिर भी लय का एहसास कहाँ से आ रहा है| शायद इस रचना को “कहारवा” ताल के किसी धुन में ढाला जा सकता है|

आपका क्या विचार है? क्या आप इस विश्लेष्ण से सहमत हैं, या रचना में निहित लय को क्या किसी और तरह से देखना चाहिए? किसी शब्द को या पंक्ति को क्या किसी और प्रकार से देखा जा सकता है? नीचे ज़रूर टिपण्णी दें जिससे कि हम सभी सीख पाएं|